shrimad bhagwad geeta 2.15

टैग्स

, , , , , , , ,

इस श्रंखला की पिछली पोस्ट में हमने इस श्लोक पर बात की ।

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |

आगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||

इस श्रंखला के बाकी भाग देखने चाहें / पहले भाग से पढ़ना चाहें तो ऊपर गीता टैब पर क्लिक करें । या फिर ये लिंक देखें

1.1 , 1.2 , 1.3

2.12.22.32.42.52.62.72.82.9and 2.10,

उस पोस्ट पर एक चर्चा चली जिसमे महाभारत युद्ध में दोनों ही पक्षों का अधर्म पथ पर होने की बात हुई । इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं कर रही हूँ । सिर्फ यह कह रही हूँ कि इस श्रंखला में मैं महाभारत ग्रन्थ पर नहीं बल्कि गीता पर बात कर रही हूँ । गीता महाभारत युद्ध के दौरान पुनः कही गयी है लेकिन यह महाभारत का हिस्सा नहीं । श्री कृष्ण (आगे गीता में) अर्जुन से कहते हैं कि यह गीता ज्ञान मैंने पहले सूर्य देव को दिया था जिन्होंने अपने पुत्र को दिया और परम्परा से वह ज्ञान आगे बढ़ा – लेकिन समय के साथ यह लुप्तप्रायः हो चला है इसलिए मैं आज इसे फिर से तुझे कह रहा हूँ ।

अजीब बात यह है कि , यह सब “अर्जुन को कृष्ण न लड़वाते तो हिंसा रूकती” कहने वाले लोग वे ही हैं जो कुछ महीने पहले दामिनी के गुनाहगारों को सड़क पर जंगली से जंगली सजाओं की वकालत कर रहे थे। क्या वे कहेंगे कि जज की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को यदि कटघरे में खड़ा बलात्कारी अपना गुरु या परिवारजन दिखे (या शक्तिशाली राजपुत्र दिखे) तब जज को “अहिंसावादी” बन कर पीछे हट जाना चाहिए ? …………. लेकिन यह रक्त का उबाल राजपुत्र दुर्योधन के अनेकानेक स्त्रियों के शोषण पर उबाल नहीं खाता , क्योंकि वह सब तो “पुरानी बात” है  । दुर्योधन की नज़र न सिर्फ अपनी भाभी (राजपरिवार की बहू )पर ही पड़ी बल्कि यदि आपको याद हो तो पांडवों के वनवास के दौरान एक और राजकन्या के साथ उसने यही किया था । जब राज कन्या के साथ  का यह  होता था तो जन साधारण की तो सोच ही सकते हैं  ।

लेकिन नहीं –  ये सब   भूल कर ये “ज्ञानीजन” अचानक “अहिंसावाद” पर चल देते हैं और गीता कह कर अर्जुन को प्रेरित करने के लिए कृष्ण को “अपराधी” घोषित कर देते हैं । वे यह भी भूल जाते हैं कि अक्सर साधारण स्थितियों में अहिंसा की बात करने वालों को वे स्वयं ही मूर्ख / डरपोक / आदि आदि  … घोषित करते हैं ।

लेकिन जब गीता की बात होती है तब अचानक सब न्यायप्रियता और वीरता “अहिंसावाद” की ओट  में छुप जाती है  । तब उन्हें अचानक लगने लगता है कि यदि बलात्कारियों के साथ अपने पितामह / गुरु / भाई दिखें तब न्याय की रक्षा को भूल कर युद्ध से पीठ दिखा देना “भला और सही रास्ता ” हो जाता है  ।

कृपया गीता की चर्चा पर बने रहे । महाभारत की (औचित्य और अनौचित्य ) चर्चा उसी महाभारत श्रंखला पर रहे तो बेहतर रहेगा । जब हम केमिस्ट्री की क्लास में बैठते हैं तो फिजिक्स की बात नहीं करते । लेकिन जीवन मूल्य सिखाने वाली गीता पर हम जज और ज्यूरी बन कर अपने निर्णय देने लगते हैं ।

————————————————————–

अब अगला श्लोक :

यं हि न व्यथ्यन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ् |

सं दुःख सुखं धीरं सोSमृतत्वायकल्पते ||

शब्दार्थ: 

यं = जिसे

हि न – कभी भी नहीं

व्यथयंति – व्यथित (दुखी, परेशान) करते (कर सकते) हैं

एते = ये सब

पुरुषं = वह पुरुष

पुरुष ऋषभ = पुरुषों में श्रेष्ठ है ।

सम = बराबर

दुःख सुखं = दुःख और सुख

धीरं = धैर्य रखता है

सः = वह

अमृतत्वाय कल्पते = अमृतमय जीवन (मोक्ष) के योग्य है ।

भावार्थ:

जिसे ये सब व्यथित नहीं करते और जो इन सब (शारीरिक या मानसिक) परिस्थितियों में सम रहता है (और अपना निश्चित कर्म करता रहता है) वह पुरुष श्रेष्ठ है, और मुक्त है ।  

—————————————————————-

गीता का दूसरा अध्याय पूरी गीता का summarization सा लगता है मुझे  । पहले दस श्लोकों में अर्जुन की व्यथा  थी । वह अपने रिश्ते नातेदारों को देख आकर विचलित हो जाता है और युद्ध को छोड़ देने की बातें कहता है । अब कृष्ण उसे समझा रहे हैं ।

पिछले श्लोक में कृष्ण ने कहा कि जैसे हमारी इन्द्रियां (sense of touch etc) हमें (हमारे शरीर को भिन्न शारीरिक परिस्थितियों में ) सर्दी और गर्मी का अनुभव कराती हैं , उसी तरह हे कुन्तीनन्दन, हमारे मन को भी सुख और दुःख का अनुभव होता है (भिन्न मानसिक परिस्थितियों में) । जैसे सर्दी और गर्मी (ऋतुएँ ) आती जाती रहती हैं और स्थायी नहीं हैं उसी तरह हे अर्जुन ये सुख दुःख के अनुभव भी आते जाते हैं और स्थायी नहीं हैं । (अपने मन से) इन्हें (जैसे शरीर गर्मी और सर्दी को सहन करता है) सहन कर ।

इस श्लोक में कृष्ण कह रहे हैं कि  जिस किसी मनुष्य को ये सब स्थितियां डावांडोल नहीं कर सकें वही मनुष्य मनुष्यों में श्रेष्ठ है और मोक्ष में है । आगे जाकर कहीं मुक्ति नहीं – अभी इसी जीवन में यदि कोई दुःख सुख से अनछुआ है तो अभी की ही स्थिति अमृतमय मुक्ति है ।

अब यह दोनों श्लोक सिर्फ महाभारत के सम्बन्ध में नहीं है  । दुःख और सुख को समान मान कर कर्म करने वाले ही सच में कर्तव्य कर्म कर सकते हैं । जो दुःख सुख से चलायमान होंगे वे कटु कर्तव्य कर ही नहीं सकते । क्योंकि वे तो दुःख से बचने और सुख की ओर जाने वाली ही राह चुनेंगे । ध्यान देने की बात है कि यहाँ कहीं भी युधिष्ठिर या दुर्योधन के सही गलत होने पर कुछ नहीं कहा गया है । बल्कि व्यक्ति के निजी कर्त्तव्य की बात कही जा रही है  ।

एक योद्धा जो युद्ध भूमि में आ चुका है, जिसके रण कौशल के भरोसे उसके राजा युद्ध में उतरे हैं – वह अब पीठ दिखा कर भागना चाहता है क्योंकि विरोध में उसके अपने खड़े हैं ।

कृष्ण कह रहे हैं कि अपने निजी दुःख सुख को आने जाने वाला (ऋतुओं की तरह परिवर्तन शील) मान ले, और अपना (अपना का अर्थ है अपन कर्म – योद्धा अर्जुन का कर्म – व्यक्ति अर्जुन का नहीं, पुत्र अर्जुन का नहीं, शिष्य अर्जुन का नहीं) कर्म कर । जो व्यक्ति अपने निजी दुःख सुख को परे कर कर्म कर सके वही मानवों में श्रेष्ठ होता है।

यह सब कृष्ण कब कह रहे हैं  ? कई लोग कहते हैं कि कृष्ण यदि अर्जुन को न समझाते , तो युद्ध रुक जाता , कई कई लोग न मरते। लेकिन वे भूल जाते हैं कि कृष्ण ने युद्ध से पहले तक बहुत समझाया था किन्तु अर्जुन तब अपने क्रोध (द्रौपदी का अपमान , वनवास का अपमान, आदि आदि) से क्रुद्ध हुआ युद्ध को उद्धत था। तब क्या अर्जुन नहीं जानता था कि युद्ध में कौन सामने होंगे ? भीष्म और द्रोण तो द्यूत क्रीडा के समय ही उसे अपना पक्ष बता चुके थे, और सारे पांडव जानते थे कि वे कौरवों के साथ खड़े दिखेंगे । फ़िर अब नया क्या हुआ ?

जो लोग हज़ारों प्राणों के खोने की बातें करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि वे खुद अपने देश के शत्रु देश के शुरू हो चुके युद्ध के दौरान मुख्य सेनानायक/ जनरल / सेनाध्यक्ष …. के अर्जुन की तरह “अहिंसावादी” बन कर संन्यास ले कर युद्ध भूमि छोड़ देने को वे खुद क्या कहेंगे ???? वे यह भी भूल जाते हैं कि हर आतंकवादी घटना के बाद वे खुद युद्ध छेड़ने की गुहार लगाते हैं – यह भूल कर की युद्ध में कितनी “हिंसा” होगी और कितने “निर्दोष सैनिक” मारे जायेंगे। कितनी औरतें विधवा होंगी, और कितने बच्चे अनाथ हो जायेंगे  ।

—————————————-

यदि हमें गीता समझनी है तो अपने आप को महाभारत के मायाजाल से निकाल कर इसे देखना होगा  । गीता जीवन पथ प्रदर्शिका है – यह महाभारत या अर्जुन तक सीमित नहीं है  । कृपया काँटों में उलझे रह कर गुलाब से मुंह न मोडें – इसे समझने के प्रयास करें ।

गीता की असल शुरुआत मुझे लगती है २.११ से । कई विद्वान् ऐसा मानते हैं तो कई नहीं मानते । यह मेरा अपना विचार था की यहाँ से श्री भगवान् का कथन शुरू होता है और पहले बैकग्राउंड है – और पहली बार मुझे श्रीविनोबा भावे जी का version  श्री अनुराग शर्मा जी की आवाज़ में सुनते हुए यह पता चला कि यह और भी लोग मानते हैं  । और यहाँ से कृष्ण का गीत आता है । पूरी महाभारत में न उलझें – इस पर आयें । दुसरे अध्याय के ग्यारहवे श्लोक से जो पोस्ट  लिखी हैं उनके भावार्थ फिर से पेस्ट कर रही हूँ  (ऊपर पूरी पोस्ट्स के लिंक भी हैं ।) :  :

11 श्री भगवान् ने कहा – तू न सोचने योग्य बातों पर इतना सोचा रहा है, और पंडिताई की भाषा प्रयुक्त करता है | किन्तु जो सच ही में पंडित हो – वह तो जिनके प्राण चले गए, या जिनके नहीं भी गए, उन दोनों के ही लिए शोक नहीं करते |

12 (श्री कृष्ण आगे अर्जुन से बोले – )

निश्चित ही पूर्व में ऐसा कोई काल नहीं था जब तू नहीं था, या मैं नहीं था या ये सब राजागण नहीं थे । न ही आगे ऐसा कोई काल होगा जब हम सब नहीं होंगे ।

13 जैसे शरीर में रहने वाला आत्मा अपरिवर्तित ही रह कर लगातार बदलते हुए शरीर में वास करता है (शरीर बालक से जवान होता है, फिर बूढा भी परन्तु उसके भीतर रहने वाला व्यक्ति वही रहता है ) उसी तरह मृत्यु के समय भी वही आत्मा एक से दूसरे शरीर में पुनर्वास कर लेता है | जो यह जानते हैं , वे मोहित नहीं होते ।

14 इन्द्रिय अनुभूति (और मन की भी ) – गर्मी, सर्दी,सुख और दुःख की अनुभूति कराती हैं । जैसे ये मौसम के असर आने जाने वाले हैं, स्थायी नहीं, वैसे ही सुख दुःख भी आने जाने वाले हैं । हे भारत, इनसे प्रभावित हुए बिना इन्हें सहन करना (अनुभव करते हुए भी उपेक्षा करना) सीख । 

15 जिसे ये सब व्यथित नहीं करते और जो इन सब (शारीरिक या मानसिक) परिस्थितियों में सम रहता है (और अपना निश्चित कर्म करता रहता है) वह पुरुष श्रेष्ठ है और मुक्त है ।  

इन श्लोकों में जीवन का ज्ञान है – अपने मानस में इन्हें कृपया सिर्फ पांडव कौरव युद्ध के सन्दर्भ भर तक सीमित न रखें  ।

इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें 

जारी 

—————————————-

disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं – पर डर सा लगता है – शुरू करते हुए भी – कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों – आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ – यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो – तो you are welcome to comment – फिर डिस्कशन करेंगे …. यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  

———————————————–

मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं – कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के “सही” होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है “ज्ञानी” – और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

shrimad bhagwad geeta 2.14

टैग्स

, , , , , , , ,

इस गीता आलेख शृंखला के अन्य भागों के लिए ऊपर “geeta ” tab पर क्लीक करें |


मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः |
आगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||

मात्रा स्पर्षास्तु (इन्द्रिय संज्ञान के असर(स्पर्श) से  (मन भी इन्द्रियों का राजा ही माना गया है) ) कौन्तेय (हे कुन्तीपुत्र(अर्जुन)) शीत उष्ण (सर्दी, गर्मी) सुख दुःख (सुख और दुःख) दाः (देते हैं, आभास कराते हैं) आगम (आने वाले, प्रकट होने वाले ) अपायिनो (जाने वाले, अप्रकट होने वाले ) अनित्य (अस्थायी) तां (इन्हें) तितिक्षस्व (सहन करना, उपेक्षा करना, ध्यान ही में न लेना) भारत (हे भारत (अर्जुन))

इन्द्रिय अनुभूति (और मन की भी ) – गर्मी, सर्दी,सुख और दुःख की अनुभूति कराती हैं । जैसे ये मौसम के असर आने जाने वाले हैं, स्थायी नहीं, वैसे ही सुख दुःख भी आने जाने वाले हैं । हे भारत, इनसे प्रभावित हुए बिना इन्हें सहन करना (अनुभव करते हुए भी उपेक्षा करना) सीख ।

पिछले श्लोक में श्री कृष्ण ने कहा कि जैसे जीव बदलते हुए शरीर में (पहले एक बालक शरीर , फिर युवा शरीर और फिर बूढा शरीर – शरीर तो तीनो अलग अलग हैं, परन्तु उनमे रहने वाला जीव एक ही है, समय के साथ सिर्फ शरीर बदल रहे हैं । विज्ञान के अनुसार भी हमारा शरीर हर सात वर्ष में पूरी तरह बदल जाता है ) में स्थायी रूप से (बिना किसी बदलाव के ) – अपरिवर्तित रहता है (हम आज भी वही व्यक्ति हैं जो शायद दस-पंद्रह साल पहले थे, हमारी इच्छाएं, आशाएं, प्रेम, क्रोध आदि करीब करीब वही हैं )

उसी तरह से मृत्यु पर भी वह जीव अपरिवर्तित ही रहता है, बस शरीर बदलता है, जैसे यह शरीर इस जीवन में लगातार बदलता रहा था । इसमें धीर जन मोहित नहीं होते (disclaimer : मैं धीर नहीं हूँ, कृष्ण कह रहे हैं कि धीर मोहित नहीं होते)) । अगले श्लोक में वे कहते हैं कि जो अपने जीवन में इस अस्पृश्य भाव को आत्मसात कर ले, वह पुरुषों में पुरुषर्षभ है – अर्थात उच्च श्रेणी का है ।

अब वे कह रहे हैं की जैसे सर्दी गर्मी के मौसम के साथ ठण्ड और गर्मी के अहसास आते जाते रहते हैं, उसमे दुखी या सुखी होने की कोई बात नहीं है , उसी तरह से जीवन में सुख और दुःख की अनुभूति कराने वाली परिस्थितियाँ आती जाती रहती हैं – उनमे हमें निर्लिप्त ही रहना चाहिए ।

पार्थ शिष्य है – वह सुन रहा है  ।  सुन तो रहा है, परन्तु यह उसके जीवन के सत्य नहीं बने हैं अभी । वह कृष्ण नहीं है, नारायण नहीं, सिर्फ नर है । नारायण कह रहे हैं, नर सुन रहे हैं । न पार्थ गीता से पहले मात्रा स्पर्श से अस्पृश्य था, न इसके उपरांत हुआ । हाँ, वह इस गीता अमृत के बाद अपने कर्म पथ पर चलने पर ज़रूर अडिग हो गया था, परन्तु जीवन मृत्यु के सुख दुःख से अस्पृश्य (अनछुआ) नहीं । न पार्थ, न उसकी माता ही ।

तो गीता पाठ का अर्थ यह नहीं की उसके सारे उच्च आदेशों का हम अपने जीवन में पूर्ण सामंजस्य ला ही पायेंगे, या न ला सके तो हम नीच हो जाएँगे । किन्तु इस पठन-पाठन और श्रवण से हमारे जीवन की अशुद्धियों से शुचिता की ओर अग्रसर होने की राह अवश्य खुलती है, सुपथ पर कुछ प्रगति तो होती ही है । आगे गीता में कई जगह इस पर बात-चीत है ।

अर्जुन कई तरह से पूछते हैं की हम इन सब बातों के प्रयास करें और बीच में मार्गच्युत हो जाएँ – तो क्या ? हर बार कृष्ण कहते हैं – तुम्हारे प्रयास महत्वपूर्ण हैं । सफलता या असफलता, पूर्ण लक्ष्य प्राप्ति की लिप्सा या अपूर्ण यात्रा में राहच्युत हो जाने के भय न करो – that is not your department ,it is not your worry,it is mine . तुम्हारे “योग्य” कर्म तुम्हारा धर्म हैं, परन्तु वे कर्म सफल हों या नहीं,इससे तुम्हारे कर्म का महत्त्व कम नहीं होता।

इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें 

जारी 

—————————————-

disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं – पर डर सा लगता है – शुरू करते हुए भी – कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों – आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ – यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो – तो you are welcome to comment – फिर डिस्कशन करेंगे …. यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  

———————————————–

मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं – कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के “सही” होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है “ज्ञानी” – और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

————————————————-

DISCLAIMER : 

I am not able to implement all this in real life. I am a student of the Geeta, and just as normal a human being with as normal circumstances as most of the readers here (not all – saome readers may be very high level ideal persons). I am just trying to read / understand / share the Geeta’s message NOT claiming to be a person with the high ideal characteristics intended in the Geeta. I am not a hippocrite, and I do know that I have my limitations and weaknesses. I know many atheist persons who present the verses of the vedas perfectly. Please do not associate me with the perfection of the Geeta (or hippocricy ) just because I am trying to share the nectar I received from it) Krishna says elsewhere in the geeta that four types of persons try to get into this study – and only the highest category are the “gyaani” category. I am not one of them.

—————————————————

bhagwad geeta 2.12, 2.13

टैग्स

, , , , , , , ,

इस गीता आलेख शृंखला के अन्य भागों के लिए ऊपर “geeta ” tab पर क्लीक करें |

 

 

नत्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव नभविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।


न नहीं तु किन्तु एव निश्चित तौर पर अहम् मैं  जातु किसी भी समय  न असं  नहीं थे / अस्तित्व में थे  न नहीं त्वम तुम न  नहीं  इमे  ये सब जनाधिपाः  राजा जन न  नहीं  च भी एव निश्चित तौर पर  न  नहीं  भविष्यामः भविष्य में सर्वे वयम हम सब अतः परम इस काल के पश्चात ।

 

(श्री कृष्ण आगे अर्जुन से बोले – )

 

निश्चित ही पूर्व में ऐसा कोई काल नहीं था जब तू नहीं था, या मैं नहीं था या ये सब राजागण नहीं थे । न ही आगे ऐसा कोई काल होगा जब हम सब नहीं होंगे ।

 

 

यह श्लोक यह कहता है कि जो भी है – सब स्थायी है – सिर्फ रूप बदलते हैं । विज्ञान भी कहता है – law of conservation of energy and matter – बाह्य रूप में बदलाव आ सकता है – परन्तु न तो नया कुछ बन सकता है – न ही विनष्ट हो सकता है । हम सभी जीव समय के भी पूर्व से हैं – और समय चक्र के आगे भी होंगे । किस रूप में होंगे ? हम में से कोई नहीं जानता ।

 

यह कृष्ण इसलिए कह रहे हैं कि अर्जुन घोर विषाद में है । वह अपने पितामह भीष्म और गुरु द्रोण आदि की संभावित मृत्यु (बल्कि शायद स्वयं अपने ही हाथ से मृत्यु ) से भयभीत है – कि वे सब न होंगे – तो मैं जीत कर भी क्या करूंगा । कृष्ण कह रहे हैं कि यह संभव ही नहीं कि ये नहीं होंगे – क्योंकि कुछ भी विनष्ट हो ही नहीं सकता है ।

——————————————————-

देहिनोSअस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति  || 

 

देहिनो शरीर में रहने वाला (आत्मा / जीव ) अस्मिन इसमें  यथा जिस तरह से  देहे देह में/ शरीर में कौमारं लड़कपन यौवनं युवावस्था जरा बुढापा तथा उसी तरह से देह अन्तर देह का बदलाव (मृत्यु और दूसरा जन्म)  प्राप्तिः होता है धीरः समझदार तत्र  इस सब से न नहीं मुह्यति मोहित होता हैं ।

 

जैसे शरीर में रहने वाला आत्मा अपरिवर्तित ही रह कर लगातार बदलते हुए शरीर में वास करता है (शरीर बालक से जवान होता है, फिर बूढा भी परन्तु उसके भीतर रहने वाला व्यक्ति वही रहता है ) उसी तरह मृत्यु के समय भी वही आत्मा एक से दूसरे शरीर में पुनर्वास कर लेता है | जो यह जानते हैं , वे मोहित नहीं होते ।

 

यह बात गीता के मुख्य ज्ञान से जुडी हुई है । यह सच है – यह हम सब का अनुभव है । हम आज जिस वयस / उम्र के हैं – पांच साल पहले इससे पांच वर्ष छोटे थे, पांच साल बाद [ यदि इसी शरीर में जीवित ही रहे तो 🙂 ] इससे पांच साल बड़े हो जायेंगे । परन्तु – शरीर में जो भी बदलाव आये हैं – (शायद पहले के अपेक्षा हम अब थकते ज्यादा हों , आदि आदि ) , किन्तु हम व्यक्ति तो वही हैं जो पांच साल पहले थे ।

 

शायद कुछ नए अनुभव और नयी यादें जुड़ गयी हैं हमसे, परन्तु बुनियादी तौर पर हम नहीं बदले हैं ।

 

इसी तरह ( कृष्ण कह रहे हैं ) जब मृत्यु होगी – तब भी हम वही रहेंगे , सिर्फ जो जीव इस शरीर के बदलते रूपों में अपरिवर्तित रहता रहा इतने समय , वही एक और नए बदले हुए शरीर में चला जाएगा । जीव नहीं बदलेगा , यह सिर्फ इस present वाले बदलते शरीर से, एक नए बदलते शरीर में पुनर्वासित हो जाएगा ।

 

एक मकान बना – उसमे हम रहे । नए से पुराना हुआ, जर्जर, फिर रहने लायक न रहा । तो उसके निवासी दूसरे मकान में चले गए (जो फिर से पुराना होने ही वाला है, टूटने ही वाला है )। मृत्यु सिर्फ एक मकान का बदलाव भर है, और कुछ नहीं ।

 

इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें 

जारी 


—————————————-

disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं – पर डर सा लगता है – शुरू करते हुए भी – कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों – आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ – यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो – तो you are welcome to comment – फिर डिस्कशन करेंगे …. यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  

———————————————–

मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं – कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के “सही” होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है “ज्ञानी” – और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

 

bhagwad geeta 2.11

टैग्स

, , , , , , , ,

इस गीता आलेख शृंखला के अन्य भागों के लिए ऊपर “geeta ” tab पर क्लीक करें |

श्री भगवानुवाच्

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादान्श्चभाषसे ||

गतासूनगतासून्श्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ||११|| 

अशोच्यान (न सोचने योग्य के बारे मे) अन्व शोचः (इतन सोच रहे हो ) त्वं (तुम) प्रज्ञावादान (ज्ञानियो की तरह) च भाषसे (बात भी कर रहे हो) | गत – आसून (जिनके प्राण चले गये हैं ) अ-गत-आसून च (जिनके प्राण नहि भी गये हैं ) न अनु शोचन्ति (नहि ऐसे सोचते हैं ) पण्डिताः (पण्डित जन) |

श्री भगवान् ने कहा – तू न सोचने योग्य बातों पर इतना सोचा रहा है, और पंडिताई की भाषा प्रयुक्त करता है | किन्तु जो सच ही में पंडित हो – वह तो जिनके प्राण चले गए, या जिनके नहीं भी गए, उन दोनों के ही लिए शोक नहीं करते |

————————

[ यहाँ यह ज़रूर कहूँगी, कि मैं भी इस गीता की एक student भर हूँ | translation और discussion कर रही हूँ, परन्तु न तो मैं कोई ज्ञानी होने का दावा कर रही हूँ, न ही कोई प्रवचनकर्ता हूँ | सिर्फ एक बहुत बड़ा खजाना मिला है गीतासागर का – तो यह उसे शेयर करने का प्रयास भर है | हो सकता है कई जगह मेरे और आपके interpretations मेल न खाएं – आपकी टिप्पणियों का स्वागत है | मैं भी सीख ही रही हूँ | चर्चा करेंगे, कि कौनसा interpretation  सही होगा |]

————————

अब तक हमने जो पढ़ा – वह कृष्ण गीत की भूमिका भर थी | अर्जुन का युद्ध क्षेत्र में आना, ध्रितराष्ट्र , दुर्योधन आदि की मानसिक स्थिति की और संकेत मिले | फिर अर्जुन ने दोनों सेनाओं को देखा, और अपने सम्बन्धियों / प्रियजनों के मोह वश होकर तड़पने लगा | उसकी स्थिति इतनी बुरी हो गयी, की उसके हाथ पाँव शिथिल हो गए, और गांडीव छूटने लगा | जिस महायोद्धा अर्जुन ने अनेकों युद्ध जीते, वह “प्रियजनों का हत्यारा बनूँगा” के विचार से काँप उठा | उसने कृष्ण से कहा की इस इन्द्रियों को सुखाने वाले महाशोक से मैं कभी नहीं छूट पाऊंगा , और हथियार डालने को उद्धत हो गया | पहले कृष्ण ने एक कुशल मनोवैज्ञानिक की भांति उसे व्यंग्य कर के उकसाया – जैसा साधारण स्थिति में हम करते हैं | उन्होंने उसे कायर भी कहा , और नपुंसक भी | किन्तु अर्जुन इन बातों से आगे की दवा का ज़रूरतमंद था | उसकी मानसिक स्थिति साधारण पलायन की नहीं थी, कि वह व्यंग्यों से होश में आता  |

उसका विषाद बहुत गहन था | आखिर कृष्ण को उसे जगाने के लिए . युद्धभूमि में खड़े हुए, यह परम गुप्त ज्ञान की नदी – यह गीता – सुनानी पडी – जिसे सुन कर ही उसके संशय दूर हो सके | वह विषाद से भर कर प्रभु की शरण में आया, और प्रभु ने उसे अपने ज्ञानसागर में शरण दी | तब उसका विषाद, विषादयोग में बदल गया – जो उसे प्रभु से योग की राह पर ले जाने का साधन हुआ | कृष्ण ने उसे ज्ञान, वैराग्य , भक्ति, सांख्य, निष्काम कर्म , वेदों , यज्ञों , स्थित-प्रज्ञता आदि सभी के महत्व बताये | ध्यान देने की बात है कि – यह सब नर और नारायण की लीला मात्र है – गीता अर्जुन को नहीं – बल्कि हम लोगों के लिए गई गयी है | अर्जुन नर हैं, कृष्ण नारायण | और महाभारत के नायक युवा अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित के काल में ही कलियुग का आरम्भ हुआ | तो गीता हम लोगों को कलियुग में जीवन का सही मार्ग दिखने को गाई गयी है | अर्जुन – जो कृष्ण का चिर सखा है – वह भ्रम में पड़ा हो – यह कुछ बात हजम होती नहीं है | प्रभु के दर्शन भर करने को महाज्ञानी महामानव सदियों तपस्या करते हैं – उन प्रभु का चिर सखा मोह में पड़ेगा क्या ?

“श्रीमद भगवद गीता ” का अर्थ है “श्री भगवान् का गाया दिव्य गीत |”

…….. यह गीत यहाँ – इस श्लोक से – शुरू होता है |

————————————————————————-

तो कृष्ण कह रहे हैं “तू न सोचने योग्य पर इतना सोच रहा है ” –

न सोचने योग्य ???? तो क्या इतनी महामारी जो इस युद्ध से होगी, प्रिय पितामह की संभावित हत्या, गुरुजनों, बेटों, पोतों, चाचों, मामों आदि की संभावित मौत – पूरे परिवार का संभावित महाविनाश – क्या ये बातें “अशोच्यान” हैं ????

आप और मैं सोचें – अपने परिवार को लेकर – अर्जुन को लेकर सोचना बहुत आसान है – वह दूर है – अपने परिवार के बारे में सोचें – ऐसी महाविनाश की स्थिति अपने परिवार पर आये – तो क्या हम विषाद को प्राप्त नहीं हो जायेंगे ? हम सभी सामाजिक प्राणी हैं – सभी के परिवार हैं , साधू सन्यासी तो शायद हम सभी पढने वालों में कोई नहीं होगा – सभी के परिवारों में प्रिय जन हैं | और अर्जुन का तो फिर बहुत विराट परिवार है | प्रपिता से प्रपौत्र तक हैं, १०० तो cousins कौरव ही हैं | इन सभी की मृत्यु सामने खड़ी है – सोचिये कैसा गहरा अवसाद होगा उसके मन में | अर्जुन वैसे ही कुंती पुत्रों में शायद सबसे अधिक emotional है |

और कृष्ण “अशोच्यान” कह रहे हैं ?

क्योंकि – short  term  में ये चीज़ें बड़ी हैं, किन्तु इश्वर का viewpoint  short  term  तो नहीं होता न ? Larger perview में देखा जाए – तो हाँ , यह अशोच्यान ही है | long term scheme of events  में ये मृत्युएँ कोई मायने नहीं रखतीं | न भी मारे जाएँ ये सब इस धर्मयुद्ध में, तो किसी और रूप में उसी समय मृत्यु को पायेंगे, जिस समय उन्होंने पायी | कृष्ण महाकाल स्वरुप हैं, हर एक की मृत्यु का समय वे जानते हैं | अर्जुन युद्ध करे, या न करे, मारे, या न मारे – हर एक को अपने समय पर देह त्यागनी ही है | कृष्ण अर्जुन पर निर्भर नहीं हैं इन सबको मारने के लिए | बहुत तरीके हैं सामूहिक संहार के लिए, प्रभु भूकंप भी ला सकते हैं, बाढ़, ज्वालामुखी आदि – कुछ भी |

नहीं – जोर यहाँ परिणाम (मृत्यु या संहार) पर नहीं है | जोर यहाँ है , कर्त्तव्य पर अडिग रहने और पलायन न करने पर | हर loss की कीमत पर अपना कर्त्तव्य पूरा करने पर stress  है | कोई यह न सोचे कि यदि अर्जुन न भी लड़ता – तो जो जो, जैसे जैसे, और जब जब मरा – उसमे तिल भर भी फर्क आता | उनकी मृत्यु उसी रूप में तय थी, वैसे ही और उसी पल आती !!! बस- उसका निमित्त कोई और होता |

एक बात – गीता के बाहर की है – फिर भी कहूँगी | जब कृष्ण बालसखाओं के संग वन में थे, तब ब्रह्मा जी ने सब बछड़े और ग्वाले छुपा लिए थे – परीक्षा लेने कि यही कृष्ण हैं ? ब्रह्मा तो पल भर में लौट आये अपने समय से, किन्तु यहाँ धरती पर साल बीत गया था | उस साल भर कृष्ण खुद ही उन सभी ग्वालों और बछड़ों का रूप धार कर हर घर में हर माँ और हर गाय को पुत्र सुख देते रहे | तो यहाँ भी वे हर चीज़ अकेले कर सकते हैं | उन्हें अर्जुन के युद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं है | आवश्यकता अर्जुन को है अपना धर्म पूरा करने की |

कृष्ण कह रहे हैं कि तेरी यह पांडित्य भरी बातें पांडित्य नहीं, बल्कि मूर्खता हैं | जो सच ही ज्ञानी होते हैं, वे न जीवित का शोक (चिंता) करते हैं, न मृत का | आगे वे इस पर विस्तार करेंगे |

——-

इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें 

जारी 

—————————————-

disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं – पर डर सा लगता है – शुरू करते हुए भी – कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों – आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ – यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो – तो you are welcome to comment – फिर डिस्कशन करेंगे …. यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  

———————————————–

मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं – कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के “सही” होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है “ज्ञानी” – और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

bhagwad geeta 2.9, 2.10

संजय उवाच

एवमुक्त्वा हृषीकेशं , गुडाकेशः परन्तप |

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ||

[एवं– ऐसा ;;उक्त्वा – कह कर ;; हृषीकेशं – हृषीकेश (कृष्ण) को ;; गुडाकेशः – निद्रा को जीतने वाला (अर्जुन);; परन्तप – शत्रुप्न का नाश करने वाला (अर्जुन);; न योत्स्य – युद्ध नहि करून्गा ;; इति – बस इतना ही;; गोविन्दं -हे गोविन्द;; उक्त्वा – कह् कर;; तूष्णीं – चुप;; बभूव ह् – – हो गया |]

निद्रा को जीतने वाला अर्जुन ,  हृषीकेश (कृष्ण ) से , “हे गोविन्द, बस, मैं युद्ध नहीं करूंगा ” ऐसा कह कर चुप हो गया |      

इतने सारे तर्क (या वितर्क ?){कि उसे युद्ध करना उचित क्यों नहीं है } देकर अर्जुन अपने आप को convince कर चुका है कि यह युद्ध नहीं करना ही उसके लिए उचित है |

ध्यान दें कि

(१) वह सुशिक्षित है, अपना कर्त्तव्य जानता है | यह भी जानता है कि धर्मयुद्ध से पलायन धर्म विरुद्ध है

(२) यह भी कि वह “अहिंसा” के लिए नहीं, बल्कि प्रियजनों की मृत्यु के डर से यह कर रहा है |

(३) यदि प्रिय पितामह और गुरुदेव (और कौरवों में से कुछ गिने चुने प्रिय भाई ) बच सकें, तो उसे युद्ध में होने वाली हिंसा / खो जाने वाली जानों ) से कोई आपत्ति नहीं है – वह कोई अहिंसावादी नहीं है – पहले भी कई सारे युद्ध कर चुका है, और आगे भी करेगा |

(४) यह भी जानता है कि मैं प्रियजनों के मोह में पड़ कर अपने कर्त्तव्य से भाग रहा हूँ | अभी पीछे ही कृष्ण को गुरु कह कर उनकी शरण स्वीकारी है, अभी ही उन्ही गुरु को अपना निर्णय दे रहा है कि मैं युद्ध नहीं करूंगा – कि यह उचित नहीं है |

(५) अभी दो श्लोक पहले उसने कृष्ण को गुरु स्वीकारा और उनकी शरण में आया , यह कह कर कि “शिष्यस्ते अहम् , शाधिमाम त्वाम प्रपन्नम”

अब, जब तुम जानते ही हो कि क्या करना उचित है और तुम्हे क्या करना है, और तुम स्थिर हो कि तुम वही करोगे,  तो कैसी शरणागति ? यह ऐसा है कि बच्चा teacher से कहे कि मुझे maths नहीं आता, सिखाइए, फिर जब teacher कहे कि २+२=४ तो बच्चा बोले कि नहीं यह तो ३ होना चाहिए, ४ नहीं | 🙂

पर कृष्ण तो सद्गुरु हैं न? वे कैसे अपनी शरण में आये अर्जुन को गलत राह पर जाने देंगे ? तो वे उसे समझाते हैं अब |

————————————————-

 तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत |

सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ||

तमुवाच – उसकी इस बात को सुन कर ;; हृषीकेशः – कृष्ण ;; प्रहसन्निव – हस्ते हुए से;; भारत – (भरत वन्शी)  अर्जुन को ;;सेनयोः  उभयो: मध्ये – दोनो सेनाओ के बीच मे ;; विशीदन्तं – उस दुखी परेशान अर्जुन को;; इदं वचः – यह कहा |]

उसकी इन बातों को सुन कर, हँसते हुए से, श्री कृष्ण ने , दोनों सेनाओं के मध्य खड़े हुए ,उस दुखी (अर्जुन) से ,ये वचन कहे  |

कृष्ण हंस रहे हैं | किन्तु यह हंसी शिष्य की हंसी उड़ने वाली हंसी नहीं, बल्कि उसे encouragement देने के लिए, उसका tension कम करने के लिए है | उन्हें अर्जुन के सारे विरोधाभास दिख रहे हैं, जो उसे स्वयं को नहीं दिख रहे |

युद्ध से पहले जब कृष्ण युद्ध टालने के प्रयास कर रहे थे – तब यही अर्जुन युद्ध के लिए लालायित था | उस पर तब प्रतिशोध का भूत सवार था | तब भी यह विदित था कि युद्ध होगा तो किनसे लड़ना होगा, कौन प्रिय जन जान हथेली पर ले कर युद्ध करेंगे | किन्तु तब उसने युद्ध चुना | इसलिए नहीं कि यह न्यायोचित या धर्मोचित था, बल्कि इसलिए कि उसे द्रौपदी के अपमान का बदला लेना था |

कृष्ण और युधिष्ठिर युद्ध टालना चाहते थे, किन्तु चारों छोटे पांडव भाई युद्ध चाहते थे | अब युद्ध छिड़ गया है, भेरियां बज गयी हैं | अब युद्ध छोड़ देने का अर्थ है, अन्याय को धर्म पर जीत जाने देना | 

यहाँ से असल गीता का ज्ञान दिया जाता है | यह सब सिर्फ भूमिका थी | अब कृष्ण का गीत है – जिसे श्रीमद (श्री)- भगवद (भगवान की) गीता (गीत) कहते हैं | यह दिव्य गीत अगले श्लोक से शुरू होगा |

इस गीता आलेख के बाकी भागों (इससे पहले और बाद के) के लिए ऊपर गीता tab पर क्लिक करें 

जारी 

—————————————-

disclaimer:

कई दिनों से इच्छा थी, कि भगवद गीता की अपनी समझ पर लिखूं – पर डर सा लगता है – शुरू करते हुए भी – कि कहाँ मैं और कहाँ गीता पर कुछ लिखने की काबिलियत ?| लेकिन दोस्तों – आज से इस लेबल पर शुरुआत कर रही हूँ – यदि आपके विश्लेषण के हिसाब से यह मेल ना खाता हो – तो you are welcome to comment – फिर डिस्कशन करेंगे …. यह जो भी लिख रही हूँ इस श्रंखला में, यह मेरा interpretation है, मैं इसके सही ही होने का कोई दावा नहीं कर रही  

———————————————–

मेरे निजी जीवन में गीता जी में समझाए गए गुण नहीं उतरे हैं । मैं गीता जी की एक अध्येता भर हूँ, और साधारण परिस्थितियों वाली उतनी ही साधारण मनुष्य हूँ जितने यहाँ के अधिकतर पाठक गण हैं (सब नहीं – कुछ बहुत ज्ञानी या आदर्श हो सकते हैं) । गीता जी में कही गयी बातों को पढने / समझने / और आपस में बांटने का प्रयास भर कर रही हूँ , किन्तु मैं स्वयं उन ऊंचे आदर्शों पर अपने निजी जीवन में खरी उतरने का कोई दावा नहीं कर रही । न ही मैं अपनी कही बातों के “सही” होने का कोई दावा कर रही हूँ।   मैं पाखंडी नहीं हूँ, और भली तरह जानती हूँ  कि मुझमे अपनी बहुत सी कमियां और कमजोरियां हैं । मैं कई ऐसे इश्वर में आस्था न रखने वाले व्यक्तियों को जानती हूँ , जो वेदों की ऋचाओं को भली प्रकार प्रस्तुत करते हैं । कृपया सिर्फ इस मिल बाँट कर इस अमृतमयी गीता के पठन करने के प्रयास के कारण मुझे विदुषी न समझें (न पाखंडी ही) | कृष्ण गीता में एक दूसरी जगह कहते हैं की चार प्रकार के लोग इस खोज में उतरते हैं, और उनमे से सर्वोच्च स्तर है “ज्ञानी” – और मैं उस श्रेणी में नहीं आती हूँ ।

श्रीमद भगवद गीता २.८

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्यात
 यच्छ्होकमुच्छोषणमिन्द्रियाणां |   
अवाप्यभूमावसपत्नंरिद्धं 
  राज्यं सुराणामपिचाधिपत्यं   ||    

न हि प्रपश्यामि (और न ही मैं देख (पा) रहा हूँ ) मम (मेरे) आपनुद्यत (दूर कर सके ) यत (जो) शोकं (दुःख को ) उच्छोषणं (सुखा देने वाले) इन्द्रियाणाम (इन्द्रियों को) अवाप्य (मिल जाना, पा लेना ) भूमौ (धरती के ) असपत्नं (बिना किसी प्रतिद्वन्धी के) रिद्धम (समृद्ध) राज्यं (राज्य) सुराणाम  (देवताओं का ) अपि (तक भी) च- अधिपत्यम (विजित कर के अधिकार प्राप्त कर लेने पर भी )


अर्जुन ने कहा : मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देख पा रहा जो मेरे इस इन्द्रियों को सुखा डालने वाले शोक को दूर कर सके (जो शोक प्रिय जनों की आसन्न हत्याओं के भय से उत्पन्न हुआ है ) | चाहे मुझे इस विजय से धरती का समृद्ध शत्रुविहीन साम्राज्य मिल जाये , या स्वर्ग का अधिपति ही बन जाऊं, तब भी यह गहन शोक न जाएगा | 

अर्जुन पिछले श्लोक (जिसमे उसने कार्पण्य से उपहत हो कर विवेक खो बैठा हूँ – यह स्वीकार कर के अपने को कृष्ण के शिष्य रूप में समर्पित कर दिया है ) आगे कह रहा है अब | वह अभी कह आया है (पिछले श्लोक में ) कि वह कृष्ण की शरण में है – जो वे कहेंगे वह करेगा | और अभी ही कह रहा है कि मुझे कोई उपाय नहीं दीखता | यह ऐसा नहीं की अर्जुन धोखा दे रहा है कृष्ण को, या विरोधाभास हो उसकी बातों में | वह इतना दुखी है – हाथ पाँव ठन्डे हुए जा रहे हैं, दिमाग काम नहीं कर रहा , खड़े नहीं हो पा रहा , हाथ से गांडीव गिर रहा है |

वह बेचारा (कृपया “बेचारा” शब्द पर विवाद न हो – बेचारा का अर्थ दया का पात्र नहीं होता – इसका अर्थ होता है – वह जिसे कोई चारा / उपाय न सूझ रहा हो ) समझ ही नहीं पा रहा कि मैं अब क्या करूँ, क्या कहूँ, कहाँ जाऊं ……. | सोचिये- उसे किसे मारना है – अपने प्रिय दादा, अपने प्रिय भाइयों, अपने प्रिय भतीजों आदि को – अपने आप को अपने सगे सम्बन्धियों के साथ सोचये – अर्जुन पर क्या गुज़र रही होगी, समझ में आएगा थोडा थोडा | 

परन्तु – यह कर्म – यह परीक्षा – आवश्यक है | उसके अपने लिए नहीं – वरन धर्म की जीत के लिए आवश्यक है | यह विषाद ही उसे प्रभु के प्रति समर्पण के लिए तपा कर कुंदन कर रहा है | और जब ऐसा संपूर्ण समर्पण होगा – तब ही गीता ज्ञान आत्मसात हो पायेगा | नहीं तो तर्क कुतर्क के सिलसिले का क्या है – वह तो अनंत है | 

आज की स्थिति में तो आये दिन लोग सिर्फ एक मकान भर के लिए सगे भाई की हत्या कर देते हैं | कोई लोग अपने अहंकार के पोषण के लिए पिता तुल्य व्यक्ति को व्यंग्य बाण मार मार कर इतनी मानसिक प्रतारणा देते हैं की वे खून के आंसू रोयें | पुत्र और पुत्रियाँ ( और पुत्रवधुएँ और दामाद) अपने जीते जागते बुजुर्गों को मानसिक आघात कर कर के इतना दुखित कर देते हैं की वह बुज़ुर्ग ईश्वर से मृत्यु मांगने लगे | इसी मानसिकता के कारण आज हमारी भारत भूमि पर old age homes स्थापित हैं 😦 | 


लेकिन यहाँ अर्जुन कह रहा है कि (इन सब प्रिय जनों के बिना जीवन की कल्पना से भी ) जो मुझे कलेजे को चीर देने वाला दुःख हो रहा है- यह संताप तो स्वर्ग प्राप्त भी हो जाए – पर फिर भी नहीं जा सकता | वह धर्म अधर्म सब भूल गया है अभी इस मार्मिक दुःख से | यह भी भूल गया है कि इस युद्ध से वह ये सारे साम्राज्य जीतने को प्रयत्नरत भी नहीं है | उसे सिर्फ और सिर्फ अँधेरा नज़र आ रहा है | 


इसके विपरीत दुर्योधन है – जिसकी और से पितामह लड़ रहे हैं | पर दुर्योधनी मानसिकता उन्हें सिर्फ एक योद्धा के रूप में देखती है | यदि उनकी मृत्यु हो गयी इसमें – तो जो नुक्सान होगा – वह सैनिक दृष्टी से तो उसे चोट देगा, किन्तु भावनात्मक कोई चोट न लगेगी | उसके लिए अपने बुज़ुर्ग सिर्फ शतरंज की बिसात की गोटियाँ हैं (या कहें कि द्यूत की ?) – जिन्हें वह सिर्फ अपनी जीत के उद्देश्य से उपयोग में ला रहा है | उसे उनकी भयंकर मानसिक पीड़ा से ( जो उसके कर्मों से उत्पन्न हो रही है ) या उनकी संभावित मृत्यु से भी – कोई तकलीफ नहीं होती है |

ध्यान देने की बात है कि – सिर्फ गीता के गायन से और उसके श्रवण भर से ही इस पीडादायी मनोस्थिति में पड़ा यह अर्जुन इस विषाद से निकल सका | यह इसलिए संभव हुआ कि उसने पूरी श्रद्धा से सुना, समझा और मनन किया |

ऐसा नहीं है कि उसने प्रति प्रश्न पूछे न हों – पूछे – अवश्य पूछे – बार बार पूछे  | परन्तु उन प्रश्नों का उद्देश्य कृष्ण की बात काटना नहीं था, बल्कि उनकी बात समझना था | 

मैं बार बार यही कहती रहती हूँ कि – हम क्या कर रहे हैं – इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि हम वह क्यों कर रहे हैं, किस भावना से प्रेरित हो कर कर रहे हैं | 

यह सिर्फ अर्जुन पर उस वक़्त नहीं – बल्कि हम में से हर एक पर – हर वक़्त, हर स्थति में लागू होता है | कई बार हमारा कर्त्तव्य ऐसा कुछ होता है – जो हमें कड़वा भी लगता है | तब – उस कर्त्तव्य को सामने देख कर ही हम मोहवश पस्त पड़ जाते हैं | कुतर्क भी करते हैं – ज्ञानियों जैसी बातें भी बनाते हैं | परन्तु यह ज्ञान नहीं होता, ज्ञान का छलावा भर होता है | परन्तु यदि कृष्ण जैसा सदगुरु मिले – और अर्जुन सा समर्पित शिष्य – तो संशय दूर होते समय नहीं लगता | 


इस शृंखला के बाकी भागों के लिए ऊपर “गीता” तब पर क्लिक करें | ……..जारी ……

एको राम इक ओंकार

यह कहानी निरामिष ब्लॉग पर comment में लिखी है – सोचा – यहाँ भी शेयर करूँ 🙂 | राम एक ही हैं – दो नहीं | इस सिलसिले में श्री तुलसी रचित रामचरितमानस से ही कथा कहती हूँ | यह कथा शिवपुराण में भी है | 

तुलसी रामायण – बालकाण्ड में यह प्रसंग आता है ->


शिव जी राम जी के भक्त थे – तब श्री सती माँ उनकी संगिनी थीं | उनके मन में भी यही सवाल उठा की “क्या यह सीता सीता कह कर जंगलों में बिलखता भटकता हुआ साधारण मानव वे राम हो सकते हैं जो मेरे शंकर जी के पूज्य हैं ?”

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥

सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥

वे कुछ बोल नहीं रही थीं, किन्तु सर्वज्ञ शिव शम्भू उनके मन की बात समझ गए थे – की नहे शंका है | उनकी यह शंका शिव जी को अच्छी न लगी – और उन्होंने सती माँ को समझाया भी | किन्तु सती माई का मन न माना | उन्होंने परीक्षा लेने के लिए सीता का रूप धरा और वन में “हे सीते” कहते रोते भटकते राम के सामने गयीं, की यदि यह मानव भ्रमित हुआ तो जान जाऊंगी की ये “सृष्टिकर्ता राम” नहीं हैं |

पुनि पुनि हृदयं बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥

उन्हें देखते ही श्री राम (जो सब कुछ जानते हैं ) बोले “आप यहाँ अकेली क्या कर रही हैं माते ? शिव शम्भू कहाँ हैं ?”

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू। 
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिनि अकेलि फिरहु केहि हेतू॥ 

वे अपनी भूल जान कर सहम गयीं, की पति के समझाने के बावजूद मैं समझ न पायी और सत्य की परीक्षा ली | शिव जी के बार बार समझाने से भी मेरे मन को भ्रम बना रहा की जिस मानव को यह नहीं मालूम की उसकी पत्नी कहाँ है – वह सर्वज्ञ राम ? पति ने समझाया भी था कि जो प्रभु इस संसार का सृजन कर सकते हैं – क्या वे मानव रूप नहीं धर सकते – किन्तु मेरा मन न माना | 


इधर अब शिव जी कशमकश में पड़े – सती पत्नी को त्याग भी नहीं सकते, और जब यव मेरे प्रभु की पत्नी का रूप ले कर उनके सामने गयीं – तो मेरी माता हो गयीं – तो पत्नी रूप में स्वीकार भी नहीं सकते | क्या करें ?


तो शिवभोले करोडो वर्षों की तपस्या में ध्यानरत हुए | सती भी जान गयीं कि पति क्यों ताप में बैठ गए हैं | तो उन्हें अपना शरीर त्यागना ही था – जो दक्ष के यज्ञ में उन्होंने अग्निसमाधि लेकर किया | 

फिर पार्वती बन कर फिर से जन्मीं – तपस्या कर शिव को पाया – और उनसे कहा कि “परभो – पिछली बार हमने दशरथ नंदन राम जी को सृष्टिकर्ता राम न मानने की जो भूल की -उससे इतना कुछ हुआ | तो फिर से हम माया से भ्रमित न हों – इसके लिए हमें रामकथा सुनाइए |”

तब शिव जी ने उन्हें रामकथा सुनाई – जो रामायण नाम से हम सुनते और पढ़ते हैं |

————-
यह टिप्पणी भी निरामिष पर ही है – दूसरी पोस्ट पर

देखती हूँ कि वेदों की बातें घुमा फिर कर यह साबित करने के प्रयास किये जाते हैं कि (१) वेद मांसाहार सिखाते हैं, (२) राम और कृष्ण सिर्फ महापुरुष मात्र हैं आदि | ……………. दिखावा ये – कि हम वेदों का सम्मान करते हैं – और यह कह कर उन्ही वेदों के अर्थों के अनर्थ करने का निरंतर प्रयास चलता रहता है | 

२. फिर – एक बात और भी है | कई बातें वेदों में नहीं भी हैं – बाद में “भाष्य” में जोड़ी गयी हैं, उन बातों को highlight कर कर के उन्हें वेदों की मूल भावना से भी अधिक महत्व देने का प्रयास |

३. श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -“पत्रं पुष्पं फलं तोयम ” अर्थात ये चार चीज़ें ही स्वीकार्य हैं प्रभु को चढाने के लिए | यह नहीं कहते की “अंडम मीटम मटनम ” 🙂

४. यज्ञ के बारे में श्री कृष्ण गीता के श्लोक २.१४ में कहते हैं – जीव अन्न से होते हैं, अन्न वर्षा से और वर्षा यज्ञ से – इसलिए यज्ञ करो | 

५. एक बहुत महत्वपूर्ण बात है – गीता ३.३४
वेदवाणी {या किसी भी बताये हुए कर्मकांड} को समझने के लिए सद्गुरु (अर्थात जो गुरु परम्परा से हों और सत्य जानते हों, जो सिर्फ भाषाई खेल न खेल रहे हों, बल्कि सच ही वेदों में क्या है यह जानते हों } के आश्रय में जाओ, उनकी कृपा मांगो, उनकी सेवा करो, और फिर विनम्र प्रश्न कर के, और अपनी लगातार जिज्ञासाएं पूछ कर कही बात का अर्थ समझने का प्रयास करो | ….. प्रश्न का उद्देश्य अपनी बात स्थापित कर के गुरु को हराना नहीं , बल्कि गुरु की बात समझ कर ज्ञान पाना हो | 

६. किन्तु यह जो अभी वेद वाणी को घुमा फिर कर बलि को स्थापित करने का प्रयास चल रहा है – यह सब सिर्फ भाषानुवाद के आधार पर है | इसके लिए गीता में श्लोक है २.४२ से २.४६ तक
२.४२ – यामिमां पुष्पितां ….
२.४३ – कामात्मानः स्वर्गपरा …
२.४४ – भोगैश्वर्य प्रसक्तानाम ….
२.४५ – त्रैगुन्य विषया वेदा ….
इस का अर्थ है , जिन कम बुद्धि वाले लोगों की बुद्धि वेदों की flowery (घुमावदार ) भाषा में ही फंस कर रह गयी है – वे वेदों के सन्दर्भ दे कर 
” ‘न अन्यत अस्ति इति ‘ ….वादिनः ” 
अर्थात –
वे कहते हैं कि ‘बस इतना ही है – और कुछ नहीं’ ” | 

तो बेहतर हो कि हम गीता के सन्दर्भ में समझने का प्रयास हो कि वेद असलियत में कह क्या रहे हैं | जो यह कहें कि राम एक महापुरुष हैं सृष्टिकर्ता नहीं, कृष्ण एक महापुरुष हैं – क्या उनके कहे अनुसार वेदों को समझने का प्रयास किया जाए – तो वह प्रयास कभी भी सफल हो सकता है ?? क्या ये स्वयंभू ज्ञानी जन वेदों को कृष्ण से भी बेहतर समझते हैं और समझा सकते हैं ?

राम, हनुमान केले का पत्ता – ऐक्यवाद व् द्वैतवाद

आजकल “ऐक्यवाद” और “द्वैतवाद” पर बड़ा वाद विवाद होता रहता है | [[[कोई लोग तो कहते हैं कि ईश्वर हैं ही नहीं, तो वे इस वाद विवाद का हिस्सा नहीं हैं | ]]]  तो दूसरी ओर, जो मानते भी हैं कि ईश्वर हैं – वे भी दो तरह के हैं | एक वे जो मानते हैं कि ईश्वर एक अलग एंटिटी ” परमात्मा ” हैं और हम “जीवात्माएं” अलग जो उन्हें पूजें आदि ; और दूसरे वे जो मानते हैं कि “अहम् ब्रह्मास्मि” अर्थात – जब मैं अपने ज्ञान पर पड़े परदे से मुक्त हो जाऊंगा – तो मैं ही “ब्रह्म” हो जाऊंगा | मैं कोई व्यक्तिगत राय नहीं दे रही इस बारे में – दोनों ही दर्शन अपनी जगह सही हो सकते हैं | पर यहाँ इस जगह यह कहानी इस सिलसिले में सुनने में आती है | भूमिका यह है कि जहाँ हम रहते हैं, यह वह जगह है जहाँ किष्किन्धा थी – तो यह हनुमान जी की भूमि है – यहाँ वे “आंजनेय ” नाम से अधिक जाने जाते हैं – उनकी माँ अंजना के नाम से … तो कहानी कुछ यूँ है ….

जब रावण की सेना को हरा कर और सीता जी को लेकर श्री राम चन्द्र जी वापस अयोध्या पहुंचे – तो वहां उन सब के लौटने की ख़ुशी में एक बड़े भोज का आयोजन हुआ | वानर सेना के सभी लोग भी आमंत्रित थे – और बेचारे सब ठहरे वानर ही न ? तो सुग्रीव जी ने उन सब को खूब समझाया – देखो – यहाँ हम मेहमान हैं और प्रभु के गाँव के लोग हमारे मेजबान | तुम सब यहाँ खूब अच्छे से पेश आना – हम वानर जाती वालों को लोग शिष्टाचार विहीन न समझें, इस बात का ध्यान रखना | 

वानर भी अपनी जाती का मान रखने के लिए तत्पर थे, किन्तु एक वानर आगे आया और हाथ जोड़ कर श्री सुग्रीव से कहने लगा ” प्रभो – हम प्रयास तो करेंगे कि अपना आचार अच्छा रखें, किन्तु हम ठहरे बन्दर | कहीं भूल चूक भी हो सकती है – तो अयोध्या वासियों के आगे हमारी अच्छी छवि रहे – इसके लिए मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप किसी को हमारा अगुवा बना दें, जो न सिर्फ हमें मार्गदर्शन देता रहे, बल्कि हमारे बैठने आदि का प्रबंध भी सुचारू रूप से चलाये, कि कही इसी चीज़ के लिए वानर आपस में लड़ने भिड़ने लगें तो हमारी छवि धूमिल होगी |”

अब वानरों में सबसे ज्ञानी, व श्री राम के सर्वप्रिय तो हनुमान ही माने जाते थे – तो यह जिम्मेदारी भी उन पर आई |

भोज के दिन श्री हनुमान सबके बैठने वगैरह का इंतज़ाम करते रहे , और सब को ठीक से बैठने के बाद श्री राम के समीप पहुंचे, तो श्री राम के उन्हें बड़े प्रेम से कहा कि तुम भी मेरे साथ ही बैठ कर भोजन करो  | अब हनुमान पशोपेश में आ गए | उनकी योजना में प्रभु के बराबर बैठना तो था ही नहीं – वे तो अपने प्रभु के जीमने के बाद ही प्रसाद के रूप में भोजन ग्रहण करने वाले थे | न तो उनके लिए बैठने की जगह ही थी ना ही केले का पत्ता (अपने हिंदी भाषी साथियों को बताना चाहूंगी – जैसे उत्तर भारत में पत्तलों में भोज परोसे जाने का रिवाज़ है – उसी तरह यहाँ केले के पत्तों में भोजन परोसा जाता है उत्सवों में और भोजों में |)

तो हनुमान बेचारे पशोपेश में थे – ना प्रभु की आज्ञा ताली जाए, ना उनके साथ खाया जाए | प्रभु तो भक्त के मन की बात जानते हैं ना ? तो वे जान गए कि मेरे हनुमान के लिए केले का पत्ता नहीं है , ना स्थान है | उन्होंने अपनी कृपा से अपने से लगता हनुमान के बैठने जितना स्थान बढ़ा दिया (जिन्होंने इतने बड़े संसार की रचना की हो – वे कर सकते हैं ज़रा से और स्थान की रचना ) | लेकिन प्रभु ने एक और केले का पत्ता नहीं बनाया |

उन्होंने कहा ” हे मेरे प्रिय अति प्रिय छोटे भाई या पुत्र की तरह प्रिय हनुमान | यूं मेरे साथ मेरी ही थाली (केले का पत्ता) में भोजन करो | क्योंकि भक्त और भगवान एक हैं – तो कोई हनुमान को भी पूजे तो मुझे ही प्राप्त करेगा (यह ऐक्वाद का शब्द है) |”

इस पर श्री हनुमान जी बोले – “हे प्रभु – आप मुझे कितने ही अपने बराबर बताएं, मैं कभी आप नहीं होऊँगा, ना तो कभी हो सकता हूँ – ना ही होने की अभिलाषा है | (यह है द्वैतवाद) – मैं सदा सर्वदा से आपका सेवक हूँ, और रहूँगा – आपके चरणों में ही मेरा स्थान था – और रहेगा | तो मैं आपकी थाल में से खा ही नहीं सकता | “

तब श्री राम ने अपने सीधे हाथ की मध्यमा अंगुली से ( मिडल फिंगेर ऑफ़ द राईट हैंड ) केले के पत्ते के मध्य में एक रेखा खींच दी – जिससे वह पत्ता एक भी रहा और दो भी हो गया | एक भाग में प्रभु ने भोजन किया -और दूसरे अर्ध में हनुमान को कराया | तो जीवात्मा और परमात्मा के ऐक्य और द्वैत दोनों के चिन्ह के रूप में केले के पत्ते आज भी एक होते हुए भी दो हैं – और दो होते हुए भी एक है |
——————— 


राम कथा – गिलहरी, राम सेतु के डूबते पत्थर

(1) गिलहरी की पीठ पर धारियां देखीं आपने?

इनके बारे में एक बड़ी ही प्यारी कहानी सुनी है मैंने – आप में से कुछ लोगों ने शायद सुनी होगी – पर यहाँ शेयर करने को जी चाहा मेरा … तो कहानी पेश है –

जब श्री राम अपनी पत्नी व अनुज के साथ वन वास पर थे – तो रास्ते चलते हर तरह के धरातल पर पैर पड़ते रहे – कहीं नर्म घास भी होती, कहीं कठोर धरती भी, कही कांटे भी | ऐसे ही चलते हुए श्री राम का पैर एक नन्ही सी गिलहरी पर पडा – और वे ना जान पाए कि ऐसा हुआ है (यह सिर्फ एक कहानी है – हकीकत में तो प्रभु को कोई बात पता ना चले – यह संभव ही नहीं है | ) श्री राम के चरणों को कठोर धरती की अपेक्षा मखमली सी अनुभूति हुई – तो उन्होने एक पल को अपना चरण टेके रखा – फिर नीचे की ओर देखा तो चौंक पड़े | 

उन्हें दुःख हुआ कि इस छोटी सी गिलहरी को मेरे वजन से कितना दर्द महसूस हुआ होगा | उन्होंने उस नन्ही गिलहरी को उठा कर प्यार किया और बोले – अरे – मेरा पाँव तुझ पर पड़ा – तुझे कितना दर्द हुआ होगा ना?

गिलहरी ने कहा – प्रभु – आपके चरण कमलों के दर्शन कितने दुर्लभ हैं – संत महात्मा इन चरणों की पूजा करते नहीं थकते – मेरा सौभाग्य है कि मुझे इन चरणों की सेवा का एक पल मिला – इन्हें इस कठोर राह से एक पल का आराम मैं दे सकी |  [**********इस से याद आया — अगली कहानी प्रभु चरणकमल , कछुए, केवट और सुदामा की होगी ****************]

प्रभु ने कहा – फिर भी – दर्द तो हुआ होगा ना ? तू चिल्लाई क्यों नहीं ?

गिलहरी बोली – प्रभु , कोई और मुझ पर पाँव रखता, तो मैं चीखती “हे राम!! राम राम !!! ” , किन्तु , जब आप का ही पैर मुझ पर पडा – तो मैं किसे पुकारती

श्री राम ने गिलहरी की पीठ पर बड़े प्यार से उंगलिया फेरीं – जिससे उसे दर्द में आराम मिले | अब वह इतनी नन्ही है कि तीन ही उंगलियाँ फिर सकीं | तब से गिलहरियों के शरीर पर श्री राम की उँगलियों के निशान होते हैं | {{ अब यह मुझसे न पूछियेगा अद्वैतवाद वाली पोस्ट की तरह , कि क्या इससे पहले गिलहरियों की पीठ पर धारियां न थीं 🙂 , क्योंकि यह एक कहानी है, और राम जी ने यह रेखाएं सृष्टि के आरम्भ में खींची या अब, इससे कोई फर्क पड़ता भी नहीं | उसी तरह वहां भी फर्क नहीं पड़ता कि केले के पत्ते के बीच की धारी सृष्टि के आरम्भ में बनाई गयी, या उस वक़्त 🙂  }}
—————————————————

श्री राम सेतु और डूबते पत्थर ………

जब श्री राम की वानर सेना लंका जाने के लिए सेतु बना रही थी, तब का एक वाकया है …

श्री राम का नाम लिख कर वानर भारी भारी पत्थरों को समुद्र में डालते – और वे पत्थर डूबते नहीं – तैरने लगते | श्री राम ने सोचा कि मैं भी मदद करूँ – ये लोग मेरे लिए इतना परिश्रम कर रहे हैं | तो प्रभु ने भी एक पत्थर को पानी में छोड़ा | लेकिन वह तैरा नहीं , डूब गया | फिर से उन्होंने एक और पत्थर छोड़ा – यह भी डूब गया | यही हाल अगले कई पत्थरों का भी हुआ | प्रभु ने हैरान हो कर किसी से पूछा (मुझे याद नहीं किससे – यदि आपमें से किसी को पता हो तो बताएं ) – तो सेवक ने जवाब दिया :

” हे प्रभु | आप इस जगत रुपी भवसागर के तारणहार हैं | आपके “नाम” के सहारे कोई कितना भी बड़ा और (पाप के बोझ से) भारी पत्थर हो, वह भी इस भवसागर पर तैर कर तर जाएगा | किन्तु प्रभु – जिसे आप ही छोड़ दें – वह तो डूब ही जाएगा ना?”

—————————————–

राम चरण और कछुआ, केवट, सुदामा

यह कहानी है एक कछुए की |

सुना है की बेचारे ने प्रभु चरणों की महिमा सुनी और उन चरणों मे जाना चाहा | तो पूछने लगा सबसे – कहाँ जाऊं कहाँ जाऊं ? ( मुझसे कहानी को रेश्नलाइज़ नहीं किया जाएगा – यह कहानी है भक्ति और विश्वास की   – हर बार इसे सोच कर आँखें और दिल दोनों भर आते हैं – सोचा – इस बार आपको भी रुलाऊँ ? )

तो पूछने लगा सबसे – परन्तु किसी को कुछ पता ही न था की जाना कहाँ है प्रभु चरण ढूँढने ?

वह खोजता रहा, खोजता रहा -आखिर एक दिन उसे कोई भक्त मिला – जिसने उस नन्हे को अनन्त क्षीर सागर में जाने को कहा – और वहाँ की राह भी सुझाई | एक तो बेचारा ठहरा कछुआ – कछुए की चाल से ही चल पड़ा | चलते  चलते – चलते चलते …. सागर तट तक भी पहुँच ही गया – फिर तैरने लगा | बढ़ता गया – बढ़ता गया ….

और 
आखिर
पहुँच गया वहां 
जहां प्रभु शेष शैया पर थे – शेष जी उन को अपने तन पर सुलाए आनन्द रत थे और लक्ष्मी मैया भक्ति स्वरूप हो प्रभु के चरण दबा रही थीं |

कछुए ने प्रभु चरण छूने चाहे – पर शेष जी और लक्ष्मी जी ने उसे ऐसा करने न दिया – बेचारा तुच्छ अशुद्ध प्राणी  जो ठहरा (कहानी है – असलियत में प्रभु इतने करुणावान हैं – तो उनके चिर संगी ऐसा कैसे कर सकते हैं? )

बेचारा – उसकी सारी तपस्या – अधूरी ही रह गयी |

प्रभु सिर्फ मुस्कुराते रहे – और यह सब देखते नारद सोचते रहे किप्रभु ने अपने भक्त के साथ ऐसा क्यों होने दिया?

फिर समय गुज़रता रहा, एक जन्म में वह कछुआ केवट बना – प्रभु श्री राम रूप में प्रकटे, मैया सीता रूप में और शेष जी लखन रूप में प्रकट हुए | …………….. प्रभु आये और नदी पार करने को कहा – पर केवट बोला ……….. पैर धुलवाओगे हमसे , तो ही पार ले जायेंगे हम , कही हमारी नाव ही नारी बन गयी अहिल्या की तरह , तो हम गरीबों के परिवार की रोटी ही छिन जायेगी | ………… और फिर शेष जी और लक्ष्मी जी के सामने ही केवट ने प्रभु के चरण कमलों को धोने, पखारने का सुख प्राप्त किया … |

और समय गुज़रा …

कछुआ अब सुदामा हुआ – प्रभु कान्हा बने , मैया बनी रुक्मिणी और शेष जी बल दाऊ रूप धर आये |
  दिन गुज़रते रहे – और एक दिन सुदामा बना वह नन्हा कछुआ – प्रभु से मिलने आया |
      धूल धूसरित पैर, कांटे लगे, बहता खून , कीचड सने …………..और क्या हुआ ? 

प्रभु ने अपने हाथों अपने सुदामा के पैर धोये , रुक्मिणी जल ले आयीं, और बलदाऊ भी वहीँ बालसखाओं के प्रेम को देख आँखों से प्रेम अश्रु बरसाते खड़े रहे …. |

हरि अनन्त , हरि कथा अनन्ता ……..
हरि बोल ….